श्रीमद् भागवत गीता के महान विचार -5

मैं उन्हें ज्ञान देता हूँ जो सदा मुझसे जुड़े रहते हैं और जो मुझसे प्रेम करते हैं। ~ भगवान श्री कृष्ण

मेरी कृपा से कोई  सभी कर्तव्यों का निर्वाह करते हुए भी बस मेरी शरण में आकर अनंत अविनाशी निवास को प्राप्त करता है। ~ भगवान श्री कृष्ण

बुद्धिमान व्यक्ति कामुक सुख में आनंद नहीं लेता। ~ भगवान श्री कृष्ण

मैं धरती की मधुर सुगंध हूँ. मैं अग्नि की ऊष्मा हूँ, सभी जीवित प्राणियों का जीवन और सन्यासियों का आत्मसंयम हूँ। ~ भगवान श्री कृष्ण

वह जो वास्तविकता में मेरे उत्कृष्ट जन्म और गतिविधियों को समझता है, वह शरीर त्यागने के बाद पुनः जन्म नहीं लेता और मेरे धाम को प्राप्त होता है। ~ भगवान श्री कृष्ण

वह जो मृत्यु के समय मुझे स्मरण करते हुए अपना शरीर त्यागता है, वह मेरे धाम को प्राप्त होता है. इसमें कोई शंशय नहीं है। ~ भगवान श्री कृष्ण

खाली हाथ अाए अौर खाली हाथ चले। जो अाज तुम्हारा है कल अौर किसी का था परसों किसी अौर का होगा। इसीलिए जो कुछ भी तू करता है उसे भगवान के अर्पण करता चल। ~ भगवान श्री कृष्ण

क्यों व्यर्थ की चिंता करते हो? किससे व्यर्थ डरते हो? कौन तुम्हें मार सक्ता है? अात्मा ना पैदा होती है न मरती है। ~ भगवान श्री कृष्ण

जो हुअा वह अच्छा हुअा जो हो रहा है वह अच्छा हो रहा है जो होगा, वह भी अच्छा ही होगा। तुम भूत का पश्चाताप न करो। भविष्य की चिन्ता न करो। वर्तमान चल रहा है। ~ भगवान श्री कृष्ण

तुम्हारा क्या गया जो तुम रोते हो? तुम क्या लाए थे, जो तुमने खो दिया? तुमने क्या पैदा किया था जो नाश हो गया? न तुम कुछ लेकर अाए, जो लिया यहीं से लिया। जो दिया, यहीं पर दिया। जो लिया, इसी (भगवान) से लिया। जो दिया, इसी को दिया। ~ भगवान श्री कृष्ण

खाली हाथ अाए अौर खाली हाथ चले। जो अाज तुम्हारा है कल अौर किसी का था परसों किसी अौर का होगा। तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो। बस यही प्रसन्नता तुम्हारे दु:खों का कारण है। ~ भगवान श्री कृष्ण

परिवर्तन संसार का नियम है। जिसे तुम मृत्यु समझते हो, वही तो जीवन है। एक क्षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो दूसरे ही क्षण में तुम दरिद्र हो जाते हो। मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा अपना-पराया मन से मिटा दो फिर सब तुम्हारा है तुम सबके हो। ~ भगवान श्री कृष्ण

न यह शरीर तुम्हारा है न तुम शरीर के हो। यह अग्नि, जल वायु पृथ्वी अाकाश से बना है अौर इसी में मिल जायेगा। परन्तु अात्मा स्थिर है - फिर तुम क्या हो? ~ भगवान श्री कृष्ण

इसलिए हे पार्थ! इन यज्ञ दान और तपरूप कर्मों को तथा और भी सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मों को आसक्ति और फलों का त्याग करके अवश्य करना चाहिए यह मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है ~ भगवान श्री कृष्ण

जो कुछ कर्म है वह सब दुःखरूप ही है- ऐसा समझकर यदि कोई शारीरिक क्लेश के भय से कर्तव्य-कर्मों का त्याग कर दे तो वह ऐसा राजस त्याग करके त्याग के फल को किसी प्रकार भी नहीं पाता ~ भगवान श्री कृष्ण

जो मनुष्य अकुशल कर्म से तो द्वेष नहीं करता और कुशल कर्म में आसक्त नहीं होता- वह शुद्ध सत्त्वगुण से युक्त पुरुष संशयरहित बुद्धिमान और सच्चा त्यागी है ~ भगवान श्री कृष्ण

क्योंकि शरीरधारी किसी भी मनुष्य द्वारा सम्पूर्णता से सब कर्मों का त्याग किया जाना शक्य नहीं है इसलिए जो कर्मफल त्यागी है वही त्यागी है- यह कहा जाता है ~ भगवान श्री कृष्ण

कर्मफल का त्याग न करने वाले मनुष्यों के कर्मों का तो अच्छा, बुरा और मिला हुआ- ऐसे तीन प्रकार का फल मरने के पश्चात अवश्य होता है किन्तु कर्मफल का त्याग कर देने वाले मनुष्यों के कर्मों का फल किसी काल में भी नहीं होता  ~ भगवान श्री कृष्ण



    || जय श्री कृष्णा ||





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